वक़्त का क्या है, गुज़रता है, गुज़र जायेगा…

जो ख़ुशबू बनकर महकती हो
साँसों को आज बहकने दो
कल शायद इस सीने में,
फ़क़त धुआँ रह जायेगा.

वक़्त का क्या है,
गुज़रता है, गुज़र जायेगा…

ख्वाबों की तरह आती हो
मूंद कर पलकें छूने दो
कल शायद मर्ग-आग़ोश में,
यहीं लम्हा रह जायेगा.

वक़्त का क्या है,
गुज़रता है, गुज़र जायेगा…

जो हाथों मे तेरा हाथ है
उम्र-सफ़र यूँही चलने दो
कल शायद इन राहों पर,
कोई तन्हा रह जायेगा.

वक़्त का क्या है,
गुज़रता है, गुज़र जायेगा…

इन मासूम, नन्हे हाथों को
आज गले से लिपटने दो
कल शायद ये अक्स अपना,
अपना कहाँ रह जायेगा.

वक़्त का क्या है,
गुज़रता है, गुज़र जायेगा…

माना ख़ाक में मिल जाना है
कुछ अपना छोड़ जाने दो
कल शायद इन सितारों में,
कहीं निशाँ रह जायेगा.

वक़्त का क्या है,
गुज़रता है, गुज़र जायेगा…


पलको में छुपाये रख्खे है
आँखों मे आज उभरने दो
कल शायद हर ख़्वाब अपना,
यूँही अश्क बन जायेगा.

वक़्त का क्या है,
गुज़रता है, गुज़र जायेगा…

उम्र-भर जख़्म खाये है
आबला-पा ही चलने दो
कल शायद बैठे रहने से,
जख़्म नासूर बन जायेगा.

वक़्त का क्या है,
गुज़रता है, गुज़र जायेगा…

जो राहनुमा सितारा गुम है
तो आज यूँही भटकने दो
कल शायद इन क़दमों से,
रास्ता नया बन जायेगा.

वक़्त का क्या है,
गुज़रता है, गुज़र जायेगा…

ज़िद जो हमने ठानी है
मंज़िल को आज तरसने दो
कल शायद इन राहों पर,
अपना गुमाँ रह जायेगा.

वक़्त का क्या है,
गुज़रता है, गुज़र जायेगा…

माना ख़ाक में मिल जाना है
कुछ अपना छोड़ जाने दो
कल शायद इन सितारों में,
कहीं निशाँ रह जायेगा.

वक़्त का क्या है,
गुज़रता है, गुज़र जायेगा…

~ Manish (25/8/2020)
© Manish Hatwalne


Credits:

‘वक़्त का क्या है, गुज़रता है, गुज़र जायेगा’ is a मिस्रा borrowed from famous poet Ahmad Faraz. I have based my poem on this line, with its core idea as The time will pass anyway.…’. Today (25th August) is Faraz’s death anniversary, so I decided to complete this today. This is my tribute to this great poet.

You can see the original couplet by Ahamd Faraz below –

वक़्त का क्या है, गुज़रता है, गुज़र जायेगा...
वक़्त का क्या है, गुज़रता है, गुज़र जायेगा… (PC: rekhta.org)

The featured image by Monoar Rahman Rony from Pixabay.

क्यों लिखता हूँ ?

लिखना पसंद है, इसलिये लिखता हूँ
अपनी समझ, अपने एहसास को
लफ़्ज़ों में ढालने की कोशिश करता हूँ
अंदर का दर्द, कुछ अनकही बाते,
काग़ज़ पर सजा लेता हूँ
अपनी कविताओं में अक्सर
मै ख़ुद को ढूंढता रहता हूँ |

तुम कहती हो, पढ़कर सुनाओ
मै ढंग से पढ़ नही पाता हूँ
कभी तेज़, कभी बुदबुदाता हूँ
काग़ज़ पर लिखी अपनी कविता,
पढ़ते, गुनगुनाते हिचकिचाता हूँ
अल्फ़ाज़ मेरे जो काग़ज़ पर तो इतराते है
उन्हे कहते, सुनाते कतराता हूँ |

दुनियादारी अगर मै भी सीख लेता,
बस यूँ ही हाँ में हाँ मिला लेता,
कभी बात डटकर बोल देता,
कभी हंस कर बात टाल देता,
बातों-बातों में दिल लुभा लेता,
गर महफ़िलें मै भी सजा लेता,
तो शायद….
मै लिख नही पाता!

~ मनिष (16/5/2019)
© Manish Hatwalne


This poem is for that young, cordial girl from book-cafe who insisted that I read, recite my poems. Not sure how much she could make sense of my mumblings, but here is one for you Nishi, in the format that I prefer – written words instead of spoken words.